अलिफ लैला की प्रेम कहानी-17
: शहरजाद ने कहा कि हे स्वामी, एक वृद्ध और धार्मिक प्रवृत्ति का
मुसलमान मछुवारा मेहनत करके अपने स्त्री-बच्चों का पेट पालता था। वह नियमित रूप से
प्रतिदिन सवेरे ही उठकर नदी के किनारे जाता और चार बार नदी में जाल फेंकता था। एक दिन
सवेरे उठकर उसने नदी में जाल डाला। उसे निकालने लगा तो जाल बहुत भारी लगा। उसने समझा
कि आज कोई बड़ी भारी मछली हाथ आई है लेकिन मेहनत से जाल दबोच कर निकाला तो उसमें एक
गधे की लाश फँसी थी। वह उसे देखकर जल-भुन गया, उसका जाल भी गधे के बोझ से जगह जगह फट
गया था।
उसने सँभाल कर फिर
नदी में फेंका। इस बार जो खींचा तो उसमे सिर्फ मिट्टी और कीचड़ भरा मिला। वह रो कर
कहने लगा कि मेरा दुर्भाग्य तो देखो, दो-दो बार मैंने नदी में जाल डाला और मेरे हाथ
कुछ नहीं आया। मैं तो इस पेशे के अलावा और कोई व्यवसाय जानता भी नहीं, मैं गुजर-बसर
के लिए क्या करूँ।
उसने जाल को धो-धा
कर फिर पानी में फेंका। इस बार भी उसके हाथ दुर्भाग्य ही लगा, जाल में कंकड़, पत्थर
और फलों की गुठलियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। यह देखकर वह और भी रोने-पीटने लगा।
इतने में सवेरे का उजाला भी फैल गया था। उसने भगवान का ध्यान धरा और विनय की, 'हे सर्व
शक्तिमान दीनदयाल प्रभु, तुम जानते हो कि मैं हर रोज सिर्फ चार बार नदी में जाल फेंकता
हूँ। आज तीन बार फेंक चुका हूँ और कुछ हाथ नहीं आया और मेरी सारी मेहनत बेकार गई। अब
एक बार जाल फेंकना रह गया है। अब तू कृपा कर और नदी से मुझे कुछ दिलवा दे और मुझ पर
इस प्रकार दया कर जैसी किसी समय हजरत मूसा पर की थी।'
यह कहकर उसने चौथी
बार जाल फेंका और खींचा तो भारी लगा। उसने सोचा इस बार तो जरूर मछलियाँ फँसी होंगी।
बड़ा जोर लगा कर उसे बाहर निकालकर देखा कि उसमें सिवाय एक पीतल की गागर के और कुछ नहीं
है। गागर के भार से वह समझा कि उसमें कुछ बहुमूल्य वस्तुएँ होंगी क्योंकि उसका मुँह
सीसे के ढक्कन से अच्छी तरह बंद था और ढक्कन पर कोई मुहर लगी थी। मछुवारे ने मन में
कहा कि यह अंदर से खाली हुआ तो भी इसे बेच कर पैसे मिल जाएँगे जिससे आज का काम किसी
तरह चलेगा।